दोस्तों राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा अग्निदेव को प्रकट करने के लिए माचिस का प्रयोग नहीं किया गया बल्कि पौराणिक विधि से प्रकट हुए अग्नि देव आज हम उसी विधि के बारे में आपको बतायंगे जिसके बारे में कोई नहीं जनता ।
अनुष्ठान में अरणि मंथन विधि से अग्निदेव को किया गया प्रकट ( Arani Manthan )
प्राचीन समय में लकड़ी के इस यंत्र से ऋषि-मुनि यज्ञ के लिए करते थे अग्नि उत्पन्न, आज भी होता है इसका उपयोग
हिंदू धर्म में अनेक परंपराएं हैं। इनमें से कुछ का पालन आज भी किया जाता है। ऐसी ही एक परंपरा है यज्ञ करने की किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को करने की एक प्रक्रिया जिसके बाद कार्य पूर्ण होते है । पुरातन काल से ही हमारे ऋषि मुनि जनकल्याण के लिए यज्ञ करते आ रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि यज्ञ करने से देवता प्रसन्न होते हैं और मनोकामना भी पूरी करते हैं।
धर्म ग्रंथों के अनुसार त्रेतायुग और द्वापर युग में राजा-महाराज अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए यज्ञ करते थे। यज्ञ करवाने के लिए सिद्धि मुनियों को बुलवाया जाता था। लेकिन यहां एक बात अचंभित करने वाली है कि उस समय माचिस या ऐसी कोई चीज नहीं होती थी, जिससे कि आग जलाई जा सके तो फिर ऋषि-मुनि किस प्रकार अग्नि प्रज्वलित करते थे। आज हम आपको इससे जुड़ी खास बातें बता रहे हैं, जो इस प्रकार है…
क्या है अरणी मंथन ? (Arani Manthan )
शमी को शास्त्रों में अग्नि का स्वरूप कहा गया है जबकि पीपल को भगवान का। इन दोनों की वृक्षों की लकड़ी से अरणी मंथन काष्ठ बनता है। उसमें अग्रि विद्यमान होती है, ऐसा हमारे शास्त्रों में उल्लेख है। इन लकड़ियों का विशेष प्रकार से उपयोग करने पर अग्नि उत्पन्न की जा सकती है। साथ ही इसके लिए विशेष मंत्र भी बोलकर अग्नि देवता का आवाहन भी किया जाता है।
अरणी मंथन से कैसे होती है अग्नि प्रकट ?
अरणी शमी की लकड़ी का एक तख्ता होता है जिसमें एक छिछला छेद रहता है। इस छेद पर पीपल की लकड़ी की छड़ी को मथनी की तरह तेजी से चलाया जाता है। इससे तख्ते में चिंगारी उत्पन्न होने लगती है, फिर हवा देकर इस आग को बढ़ाया जाता है और यज्ञ में इसका उपयोग किया जाता है। भारत में पुराने समय में हर काम के लिए आग जलाने के लिए यही तरीका अपनाया जाता था। अरणी में छड़ी के टुकड़े को उत्तरा और तख्ते को अधरा कहा जाता है।
अग्नि देवता का करते हैं आवाहन
अरणी मंथन का उपयोग कर यज्ञ के लिए अग्नि उत्पन्न करना पूरी तरह से वैज्ञानिक तरीका है, लेकिन इसके साथ-साथ ऋषि मुनि विशेष मंत्रों के माध्यम से अग्नि देवता का आवाहन भी करते थे। ऐसी मान्यता है कि उन मंत्रों से प्रभावित होकर अग्नि देवता स्वयं यज्ञ कुंड में प्रकट होते थे और समिधा आदि को ग्रहण करते हैं।